आजादी के 58 वर्ष बाद स्वतंतरता सेनानी माना
15अगस्त,2008
छत्तीसगढ़ की इस्पात नगरी के नाम से मशहूर भिलाई की एक झोपड़-पट्टी में रहने वाले देवी प्रसाद शर्मा इस बार 15 अगस्त पर बेहद ख़ुश थे.
इस बार का स्वतंत्रता दिवस उनके लिए कई मायनों में अलग था. आज़ादी के 58 साल बाद ही सही, पहली बार सरकार ने माना कि वे स्वतंत्रता सेनानी हैं.
आज़ादी के पहले लगभग 15 साल तक ज़ेल में रह कर अपनी देशभक्ति की क़ीमत चुकाने वाले देवी प्रसाद शर्मा आज़ादी के 58 सालों बाद तक सरकारी दफ़्तरों में सिर्फ़ इसलिए चप्पलें चटकाते फिरते रहे क्योंकि सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानने से इनकार कर दिया.
राज्य बदले, राज बदला, दर्ज़नों सरकारें बदलीं लेकिन देवी प्रसाद शर्मा की गुहार कहीं नहीं सुनी गई. वे कहते हैं, "एक लड़ाई मैंने अंग्रेज़ों से लड़ी और उससे लंबी लड़ाई मुझे अपनों से लड़नी पड़ी."
पिता जलियाँवाला बाग में शहीद हो गए थे. बड़े भाई भी 1930 के लाहौर आंदोलन में गुजर गए. ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ भाषण देने के आरोप में बहन को पुलिस ने इतनी प्रताड़ना दी कि उन्होंने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली |
लाहौर में 11 जनवरी 1919 को जन्मे देवी प्रसाद शर्मा बताते हैं कि उनके पिता लाला हरदयाल जालियाँवाला बाग के जनसंहार में मारे गए थे.
वे कहते हैं, "इसके बाद बड़े भाई कांता प्रसाद भी 1930 के लाहौर आंदोलन में शहीद हो गए. ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ भाषण देने के आरोप में बहन को पुलिस ने इतनी प्रताड़ना दी कि बहन ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली."
आज़ाद हिंद फ़ौज़
देवी प्रसाद शर्मा के अनुसार बहन की प्रताड़ना का बदला लेने के लिए उन्होंने एक पुलिस इंस्पेक्टर शामद ख़ान की हत्या कर दी.
फिर लाहौर से फ़रार हो कर चटगाँव होते हुए सिंगापुर चले गए और बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गए.
देवी प्रसाद गर्व के साथ बताते हैं, "मैं आज़ाद ब्रिगेड एसएस बटालियन दो का सदस्य था. आज़ादी की लड़ाई अंतिम दौर में थी. मणिपुर जाते समय हमारी बटालियन पर हमला हुआ और हम लोग गिरफ़्तार हो गए. हमें रंगून में 20 साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई."
आज़ादी के बाद भारत सरकार के हस्तक्षेप से 1960 में देवी प्रसाद को रिहा किया गया. देवी प्रसाद जब देश लौटे तब उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था.
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